इस मंदिर का निर्माण कलकत्ता निवासी श्री गुलाबचन्द जी पारसान के सुपुत्र बाबू श्री प्रतापचन्द जी पारसान ने अपने निजि द्रव्य से कराकर विक्रम संवत 1929 (1872-73 के आस पास) में प्रतिष्ठा करवाई थी।
अज्ञान तिमिर तरणि: कलिकाल कल्पतरू, पंजाब केसरी जैनाचार्य श्रीमद् विजय वल्लभ सूरीश्वर जी महाराज हस्तिनापुर तीर्थ में, श्री संघ के साथ यात्रार्थ पधारे। आपने यहाँ निर्मित श्वेताम्बर जैन मन्दिर को जीर्ण अवस्था में देखा और उत्तर भारत में शत्रुंजय समान इस महा तीर्थ के मन्दिर जी का जीर्णोद्धार कराने के लिए यहाँ की प्रबन्धक समिति - श्री हस्तिनापुर जैन श्वेताम्बर तीर्थ समिति को प्रेरणा की । इसके बाद पालीताना पहुँच कर सारे भारत के जैन समाज के नाम एक संदेश दिया।
"इसमे कोई सन्देह नही है परम-वन्दनीय, पूजनीय, आराधनीय, तारणहार, त्रैलोक्यानाथ श्री तीर्थंकर देवो के और अन्य ऋषि-महार्षियों के पुनीत चरणकमलों से यह भूमि पवित्र हुई है। इसकी धूलि मे शिरसावन्ध है। इस परम पुनीत तीर्थ का जीर्णोद्धार कराना परमावश्यक है।"
इसके पश्चात श्री हस्तिनापुर जैन श्वेताम्बर तीर्थ समिति ने श्री मन्दिर जी के जीर्णोद्धार के प्रयास प्रारम्भ कर दियें।
प्रबन्धक समिति के प्रधान श्री विनोद भाई एन. दलाल ने, सेठ आनन्द जी कल्याण जी पेढ़ी से इस विषय मे पत्र व्यवहार प्रारम्भ किया। पेढ़ी के अध्यक्ष सेठ श्री कस्तूरभाई लालभाई अहमदाबाद, ने पेढ़ी के प्रमुख शिल्पी श्री अमृतलाल मूलशंकर त्रिवेदी, अहमदाबाद को हस्तिनापुर भेजकर मन्दिर जी का निरीक्षण कराया ।
पुराने जिनमन्दिर जी के निर्माण में तात्कालिक परिस्थितियों के कारण शिल्प कला तथा जैन शिल्प ज्ञान का समूचित उपयोग नही हुआ था। मूलनायक श्री शान्तिनाथ भगवान के गर्भगृह से श्री कुन्थुनाथ भगवान एवं श्री अरनाथ भगवान के गर्भगृह नीचे स्तर पर थे। गर्भगृह के सामने स्तम्भ एक फुट नीचे था और उसके अगले भाग के स्तम्भ सात ईंची और भी नीचे थे। मुख्य द्वार तथा मन्दिर का प्रवेश द्वार गर्भगृह से डेढ़ फुट नीचे था। मूलनायक श्री शान्तिनाथ भगवान, श्री कुन्थुनाथ भगवान एवं श्री अरनाथ भगवान की प्रतिमाओं के आसन स्थान तथा उनकी दृष्टि अनुपयुक्त थी। श्री शान्तिनाथ जी की दृष्टि सवा इंची ऊंची व अन्य दो मुख्य प्रतिमाओं की आठ व साढे सात इंची नीची थी | मन्दिर जी जिस धर्मशाला के चौक में स्थित था, उसके मुख्य द्वार एवं गाँव की बस्ती की तरफ, मन्दिर जी की पीठ थी। मन्दिर जी में मंडप का सर्वथा अभाव था। शिखर का निर्माण भी शिल्प पद्धति से नही हुआ था।
अतः सभी प्रतिमाओं, चरणों इत्यादि को कायम व सुरक्षित रखते हुए मन्दिर जी का जीर्णोद्धार इस ढंग से कराया जाना था कि शिल्पकला तथा शास्त्रीय पद्धति का सम्पूर्ण रिती से समावेश हो।
सर्वसम्मति से निर्णय किया गया कि इस कार्य को कार्यान्वित करने के लिए शिल्पज्ञ श्री अमृतलाल भाई, श्री विजयोदय सूरीश्वर जी महाराज, सेठ श्री कस्तूरभाई लालभाई अहमदाबाद के मशविरे से मन्दिर जी का नक्शा बनाया जाये। यह कार्य तीर्थ समिति के प्रधान श्री विनोद भाई एन. दलाल (दिल्ली) को सौंपा गया।
पंजाब केसरी, आचार्य श्रीमद् विजय वल्लम सूरीश्वर जी म.सा. की प्रेरणा से जीर्णोद्धार का कार्य दिनांक २२.०६.१९६२ को शुभ मूहूर्त में अम्बाला के दानवीर परम गुरुभक्त लाला प्यारेलाल जी बरड़ के सुपुत्र श्री गणेशदास जी के करकमलो से प्रारम्भ हुआ। जिसकी प्रतिष्ठा विक्रम संवत २०२१, मार्गशीर्ष सुदि दसमी, तद्दानुसार १४.१२.१९६४ में शान्तमूर्ति, जिनशासन रत्न, आचार्य श्रीमद् विजय समुद्र सूरीश्वर म.सा. की निश्रा में सम्पन्न हुई। यह प्रतिष्ठा श्री विनोद भाई एन. दलाल एवं अन्य ट्रस्टियों के सक्रिय योगदान से सफल हुई।
हस्तिनापुर पाँच विभिन्न तीर्थंकरो के पाँच स्तूपों के लिए सुप्रसिद्ध रहा है। प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव, १६ वें तीर्थंकर श्री शांतिनाथ, १७ वें तीर्थंकर श्री कुंथुनाथ, १८ वें तीर्थंकर श्री अरनाथ, १९ वें तीर्थंकर श्री मल्लिनाथ - इन पाँच तीर्थंकरो की स्मृति में निर्मित पाँच स्तूपों का वर्णन यहाँ पधारने वाले यात्री संघों ने अपने यात्रा विवरणों में किया है। १७ वी शताब्दी तक ये पाँचो स्तूप विद्यमान थे। आज तो उन प्राचीन स्तूपों में से मात्र एक ही स्तूप यहाँ विद्यमान है जो श्वेतांबर जैनों की निशियां जी में है। श्री ऋषभदेव प्रभु ने वर्षीतप का पारणा इसी स्थान पर किया था ऐसी मान्यता है।