हस्तिनापुर का इतिहास

अकर्म भूमि की समाप्ति पर पिता नाभि और माता मरुदेवी के पुत्र श्री ऋषभदेव आर्यावर्त के प्रथम राजा हुए। उन्होंने अयोध्या को अपनी राजधानी बनाकर विश्व में समाज व्यवस्था और राजनैतिक व्यवस्था को जन्म दिया । मनुष्यों को असि-मसि-कृषि, शिल्प तथा कला की शिक्षा देकर मानवीय सभ्यता का आरम्भ किया। भगवान ऋषभदेव की २ पत्नियाँ, १०० पुत्र और २ पुत्रियाँ थी। राज्य व्यवस्था को सुव्यवस्थित चलाने के लिए उन्होंने आर्यावर्त के १०० विभाग कर अपने सब पुत्रों को एक-एक विभाग का राज्याधिकारी बना दिया । सबसे ज्येष्ठ पुत्र भरत को अयोध्या का, उससे छोटे बाहुबली को तक्षशिला का तथा कुरु को कुरुक्षेत्र का राज्य दिया और स्वयं ने विश्व कल्याणकारक आध्यात्मिक धर्म के प्रवर्तन के लिए राजपाट, परिवार आदि का त्याग कर निर्ग्रन्थ दीक्षा ग्रहण की।

उनके १०० पुत्रों में से ९८ ने भी दीक्षा ग्रहण की। भरत ने चक्रवर्ती पद पाने के लिए अपने छोटे भाई बाहुबली से युद्ध छेड़ा पर वह बाहुबली को पराजित न कर सका। तब बाहुबली ने अपने बड़े भाई भरत को पितातुल्य मानकर उसे अपना राज्य सहर्ष सोंप दिया और स्वयं दीक्षा ले ली। तब चक्रवर्ती भरत ने बाहुबली के राज्य का अधिकारी बाहुबली के पुत्र सोमप्रभ को बनाकर उसे सिंहासनारूढ़ किया।

प्रभु श्री ऋषभदेव दीक्षा लेकर भूतल को पावन करते हए विचरण करने लगे। इस काल में इस भूतल पर प्रथम मुनि विहार प्रारम्भ हुआ। इन्हीं उपर्युक्त कारणों से वे अंतिम मनु, आदि राजा, आदि नाथ, आदि मानव, आदि देव कहलाए।

प्रभु श्री ऋषभदेव ने बेले की तपस्या के साथ दीक्षा ग्रहण की और प्रथम पारणा करने के लिए फिरने लगे। परंतु उन्हें कहीं भी जैन मुनि के योग्य भिक्षा नहीं मिली क्योंकि उस समय लोग मुनि को आहार देने की विधि नहीं जानते थे। उस समय सब युगलिये थे। उन्होंने इससे पहले कभी भी कोई साधु नहीं देखा था। दीक्षा लेने से ४०० दिनो तक प्रभु निराहार रहे अर्थात निर्जल उपवास में रहे। इस प्रकार प्रभु आर्य अनार्य अनेक देशों में विहार करते हुए बैसाख शुक्ल तीज (तृतीया) के दिन हस्तिनापुर पधारे।

उस समय उनके दूसरे पुत्र बाहुबली के पुत्र सोमप्रभ - सोमयशा राजा का यहाँ राज्य था। इनके पुत्र श्रेयांसकुमार ने बैसाख शुक्ल तीज के दिन प्रभु को इक्षुरस से पारणा कराया। उसी समय से यह शुभ दिन अक्षय तृतीया या आखा तीज के नाम से प्रसिद्ध हआ। जैनागमों के अनुसार इस अवसर्पिणी काल में सर्वप्रथम सुपात्रदान की शुरुआत राजकुमार श्रेयांसकुमार ने की।

यहां की अतिशयवन्त धन्यधरा पर १६ वें तीर्थंकर श्री शांतिनाथ भगवान, १७ वें तीर्थंकर श्री कुन्थुनाथ भगवान तथा १८ वें तीर्थंकर श्री अरनाथ भगवन्तों के च्यवन, जन्म, दीक्षा तथा केवल ज्ञान इस प्रकार कुल १२ कल्याणक हुए है। यहीं पर इन्होने साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका, चतुर्विध श्री संघ एवं गणधरो की स्थापना कर द्वादशांगी की रचना का सूत्रपात किया। छः चक्रवर्तियों तथा शिवराजर्षि जैसे सामान्य केवली, कौरवों-पाण्डवों (महाभारत कालीन), परशुराम आदि अनेका - अनेक ऋर्षियों-महाऋर्षियों की जन्म, क्रीड़ा, दीक्षा, साधना, आराधना, तपश्चर्या तथा केवल ज्ञान प्राप्ति का सौभाग्य इसी पावन भूमि को प्राप्त है।

१९ वें तीर्थंकर श्री मल्लिनाथ जी के समवशरण एवं २० वें तीर्थंकर श्री मुनिसुव्रत स्वामी जी, २३ वें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ जी तथा २४ वें तीर्थंकर श्री महावीर स्वामी जी के विचरण का भी सध्भाग्य इसी स्थान को प्राप्त है। २२ वें तीर्थंकर श्री अरिष्टनेमी जी के जीव ने तीन भव पूर्व यही पर दीक्षा ग्रहण कर बीस स्थानक तप की उत्कृष्ठ आराधना करके तीर्थंकर नाम कर्म का निकाचित बंध किया था।

अरिहंत देव

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