श्री शत्रुंजय महातम्य आदि शास्त्रों में प्राप्त वर्णन के अनुसार जब प्रभु ऋषभदेव को एक पूर्व दीक्षा पर्याय का समय व्यतीत हो गया तब वह १००० मुनियों के साथ अष्टापद पर्वत पर पधारे । वहाँ पर ६ उपवास करके पादोपगमन अनशन करके माघ वदि तेरस के दिन निर्वाण को प्राप्त हुए । चक्रवर्ती महाराज भरत ने प्रथम तीर्थंकर भगवान श्री ऋषभदेव जी की काया के अग्नि संस्कार स्थल पर वर्द्धकी रत्न द्वारा "सिंहनिषधा" नामक मणिमय जिन महाप्रासाद बनवाया । यह सिंहनिषधा तीन कोस ऊँचा और एक योजन विस्तृत था, मानो मोक्ष मंदिर की वेदिका हो । उसके चारों तरफ़ प्रभु के समवसरण की तरह स्फटिक रत्न के चार रमणीक द्वार बनवाए। इस जिन प्रासाद में स्वर्ण मण्डप तथा उसके भीतर पीठिका, देवच्छन्दिका एवं वैदिका का निर्माण करवाया गया। पीठिका में कमलासन पर आसीन आठ प्रतिहार्य सहित अरिहन्त भगवान की रत्नमय शाश्वत चार प्रतिमायें तथा देवच्छन्द शरीर लांछन युक्त और वर्णवाली चौबीस तीर्थंकरों की मणियों तथा रत्नों की प्रतिमायें विराजमान की। इन प्रतिमाओं पर तीन-तीन छत्र, दोनो ओर दो-दो चांवर ,आराधक यक्ष, किन्नर और ध्वजायें स्थापित की गई। इस चैत्य में महाराजा भरत ने अपने पूर्वजों, भाईयों, बहनों तथा विनम्र भाव से भक्ति प्रदर्शित करते हुए स्वयं की प्रतिमा भी बनवाई। इस जिनालय के चारों ओर चैत्यवृक्ष, कल्पवृक्ष, सरोवर, कूप, बावडियाँ और मठ बनवायें। इस चैत्य के बाहर मणिरत्नों का भगवान आदिनाथ जी का एक ऊंचा स्तूप और इस स्तूप के आगे दूसरे भाईयों के भी स्तूप बनवायें तथा अभेद्य लौह पुरुष और अधिष्ठायक देव स्थापित किये गये।
लोक के इस प्रथम जिनालय में भगवान श्री आदिनाथ एवं शेष २३ तीर्थंकरों की प्रतिष्ठा करवाकर भक्ति पूर्वक महाराजा भरत ने आराधना, अर्चना और वन्दना कर अनन्त सुख प्राप्त किया ।
इस रत्नमय प्रासाद को क्रूर प्राणी तथा मनुष्यों द्वारा अशातना से बचाने के लिए महाराज भरत ने इस पर्वत को अपने दण्डरत्न द्वारा एक-एक योजन की दूरी पर आठ भागों में विखण्डित किया, जिससे यह प्रथम तीर्थ "अष्टापद" के नाम से प्रसिद्ध हुआ। भरत महाराज ने भी अनित्य भावना का चिंतन करते हुए केवल ज्ञान प्राप्त किया और अंत में अष्टापद पर ही मोक्ष पद को प्राप्त किया । कालक्रम से सगर चक्रवर्ती के ६०००० पुत्रों ने भी इसी तीर्थ की रक्षा के लिए बलिदान दे दिया । लंकापति रावण ने वीणा बजाते बजाते उत्कृष्ट भक्तिभाव से यहीं पर तीर्थंकर नाम कर्म बांधा । शासननायक भगवान श्री महावीर स्वामी के श्रीमुख से इस तीर्थ की अचिंत्य महिमा श्रवण कर अनंत लब्धिनिधान गुरु गौतम स्वामी ने सूर्य की किरण को पकड़ कर इस अष्टापद तीर्थ की यात्रा की तथा श्री जगचिंतामणि चैतवंदन की रचना की । इसी अष्टापद तीर्थ की यात्रार्थ साधनारत १५०३ तापसों को श्री गौतम स्वामी ने प्रतिबोधित कर दीक्षित किया । कालान्तर मे यह सब विलुप्त हो गया । शास्त्रों में वर्णित ऐसे महामहिमावंत श्री अष्टापद तीर्थ की संरचना श्री हस्तिनापुर की धन्य धरा पर साकार रूप ले चुका है।
विलुप्त "अष्टापद" को मूर्तरूप देने के लिए श्री आत्म-वल्लभ-समुद्र सूरीश्वर जी म.सा. के पट्ट परम्परा के परम पूज्य जैन दिवाकर गच्छाधिपति, आचार्य भगवन्त श्रीमद् विजय इन्द्रदिन्न सूरीश्वर जी महाराज ने इस धरा के प्रथम तीर्थ श्री हस्तिनापुर जी की पवित्रता तथा ऐतिहासिकता को ध्यान में रखते हुए अष्टापद के निर्माण के लिए तीर्थ समिति को प्रेरणा दी। श्री विनोद भाई एन. दलाल (अध्यक्ष निर्माण समिति), श्री जे.एस. झवेरी (प्रधान), श्री निर्मल कुमार जैन (महामंत्री) एवं समस्त प्रबन्धक समिति ने इस विशाल कार्य को करने का संकल्प लिया।
समस्त योजना अहमदाबाद की सुप्रसिद्ध जैन श्वेताम्बर पेढी सेठ श्री आनंद जी कल्याण जी के मुख्य शिल्पी श्री अमृतलाल मूलशंकर त्रिवेदी एवं श्री चन्दूभाई त्रिवेदी, अहमदाबाद ने तैयार की।
अष्टापद योजना के सम्पूर्ण नक्शे तैयार कर निर्माण समिति के अध्यक्ष श्री विनोद भाई एन. दलाल, महामंत्री श्री निर्मल कुमार जैन एवं प्रबंधक श्री तेजपाल सिंह जी ने समस्त भारत में विचरण कर तीन वर्षो तक सभी श्वेताम्बर मूर्ति पूजक जैन आचार्यो के लिखित आर्शीवचन एवं वासक्षेप प्राप्त किये। सभी आचार्यो के लिखित आर्शीवचन एक पुरतक के रूप में प्रकाशित किये है।
श्री आत्म-वल्लभ-समुद्र पट्ट परम्परा के परम पूज्य आचार्य श्रीमद् विजय नित्यानन्द सूरीश्वर म.सा. की निश्रा में बारह व्रतधारी वयोवृद्ध, परम गुरू भक्त, सुश्रावक, दानवीर, लाला खैरायती लाल जी जैन, मालिक फर्म-एनके इन्डिया रबड़ क.लि. एवं कास्को इन्डिया लि. दिल्ली के कर कमलों से दिनांक ३१.०१.१९९६ को बड़ी धूमधाम एवं उल्लासपूर्ण वातावरण में भूमि पूजन सम्पन्न हुआ। जिसका शिलान्यास दिनांक २२.०४.१९९६ को श्री आत्म वल्लभ समुद्र इन्द्र पट्ट परम्परा के आचार्य सर्वधर्म समन्वयी, श्रीमद् विजय जनकचंद्र सूरीश्वर जी म.सा. एवं आचार्य श्रीमद् विजय नित्यानन्द सूरीश्वर जी म. सा. की पावन निश्रा में सम्पन्न हुआ। सभी आचार्य भगवन्तों से जो वासक्षेप प्राप्त किये थे, अष्टापद के शिलान्यास के समय वह नीव में डाले गये जिसकी कृपा से सम्पूर्ण मन्दिर निर्विघ्न रूप से तैयार हुआ।
१६० फुट व्यास तथा १०८ फुट ऊंचे, आठ पदों वाले ऐसे अष्टापद पर्वत का निर्माण किया गया है। पर्वत के ऊपर जैन शिल्पकला के अनुरूप भव्य सुन्दर मन्दिर की रचना की गई है, जिसकी ध्वजा सहित मन्दिर की कुल ऊंचाई १५१ फुट है। इस मन्दिर में चारों दिशाओं में क्रमशः २-४-८ तथा १० जिनबिम्ब अर्थात २४ भगवान विराजमान किए गये है। सम्पूर्ण मन्दिर संघेमरमर में बना है। जो शिल्पकला की दृष्टि से विश्व में अद्वितीय एवं अलोकिक है।
मन्दिर के निचले भाग (समवशरण में) श्री ऋषभदेव भगवान की चार प्रतिमाए (चौमुखी) प्रतिष्ठित की गई है। समवशरण में ही श्री ऋषभदेव भगवान का सम्पूर्ण परिवार जिसमें उनके माता पिता, दो पत्निया, दोनो पुत्रियां तथा भरत चक्रवर्ती के साथ ९९ पुत्रों की प्रतिमाए स्थापित की गई है। पर्वत के बाहर दूसरे, तीसरे तथा चौथे पदो पर ५०१, ५०१ तथा ५०१ तापस अर्थात कुल १५०३ प्रतिमाए भी विराजमान की गई है।
श्री विनोद भाई एन. दलाल (निर्माण समिति अध्यक्ष), श्री निर्मल कुमार जैन (महामंत्री) एवं अन्य ट्रस्टियों के सहयोग से, भारत की प्रमुख पेढियों सेठ श्री आनन्दजी कल्याणजी पेढी-श्री श्रेणिक भाई कस्तूरभाई अहमदाबाद, सेठ जीवनदास गोडीदास शंखेश्वर पार्श्वनाथ जी देरासर ट्रस्ट-सेठ श्री अरविन्द भाई पन्नालाल अहमदाबाद, सेठ धर्मचन्द दयाचन्द जैन श्वेताम्बर मूर्ति पूजक संघ सादड़ी (राणकपुर), संघवी श्री रूगनाथमलजी समरथमलजी भंवरलाल जी दिनेश कुमार जी दोशी परिवार, दिल्ली, श्री दीपचन्द भाई एस. गार्डी, मुम्बई, श्री नरपतराय खैरायतीलाल जैन दिल्ली, श्री भोगीलाल लहरचन्द मुम्बई, श्री शान्तिचन्द बालूभाई झवेरी, मुम्बई, श्री जे.एस. झवेरी दिल्ली, श्री सायरचन्द जी नाहर चैन्नई, श्री सम्भवनाथ जैन देरासर पेढी बोरीवली, मुम्बई, श्री गोडी पार्श्वनाथ जी टैम्पल ट्रस्ट, पूना, श्री मंडार जैन संघ दिल्ली, श्री धनराजजी राजा जी चौहान परिवार दिल्ली, श्रीमती चन्द्रावती बालू भाई खीमचन्द रीलिजियस ट्रस्ट (मलाड़) मुम्बई , बाबू अमीचन्द पन्नालाल आदिश्वर जैन टैम्पल ट्रस्ट मालाबार हिल मुम्बई आदि ट्रस्ट एवं संस्थाओं से अष्टापद के लिए विपुल सहयोग प्राप्त हुआ।
अष्टापद मन्दिर की पावन प्रतिष्ठा मार्गशीर्ष सुदि पूर्णिमा, बुधवार, दिनांक ०२.१२.२००९ को श्री आत्म-वल्लभ-समुद्र-इन्द्र-दिन्न-सूरीश्वर जी म.सा. के क्रमिक पट्टधर, कल्याणक तीर्थोद्धारक, शान्तिदूत, गच्छाधिपति आचार्य श्रीमद् विजय नित्यानन्द सूरीश्वर म.सा., साहित्य मनीषी आचार्य श्रीमद् विजय वीरेन्द्र सूरीश्वर जी म.सा., तप चकवर्ती आचार्य श्रीमद् विजय वसन्त सूरीश्वर जी म. सा., ज्ञानप्रभाकर आचार्य श्रीमद् विजय जयानन्द सूरीश्वर जी म.सा., एवं अन्य साधु-साध्वियों जी म.सा. की पावन निश्रा एवं विशाल जनसमूह के मध्य सम्पन्न हुई।